Monday, May 9, 2016

जीवन की खिड़की #11

जीवन की खिड़की के पार,
कुछ पल झाँकता हूँ ,
बचपन किताबें,
जवानी नोट ,
बुढ़ापा दिन गिनते पाता हूँ ,
रह जाती है फिरसे ,
ये अजनबी दुनिया ,
और लोगों को बेगाना पाता हैं ।।

टूटी कुर्सी के वो मुर्चते किले ,
उन बीतें पलों को दोहरते है ,
सुनी कपाट के बड़े ताले ,
अपनी झूठी अमिरिय्त को दोहराते हैं,
कब तक तलाशेंगे छोटी खुशियाँ ,
जीवन समुन्दर सी खाली रह जाते हैं।।

किस दिन होगा मौत से सामना ,
फिर भी हर साँस को बचाते हैं ,
कस्ती सी जीवन की डोर में ,
हर राह के मंजर तलाशते हैं ,
चंद सिक्कों के लिए ,
सोने से कीमती पल भूल जाते हैं ।।

आज पुराने शीशे में ,
अपनी काया झाकता हूँ ,
पुरानी तस्वीर में अपना बचपन गुदगुदाता हूँ ,
वो पल आज भी सजीव हो उठते हैं ,
जिसमे न लालच न पैसा न मोहरे पाता हूँ ।।

"श्री"