Thursday, July 2, 2015

मुस्कान

किताबों के पन्ने
पलट रहें हैं ग़ालिब
कुछ समझ में आए
कोई समझा गया ।।

तेरी अमिरिय्त की तारीफ करता हूँ ग़ालिब
जब तक गरीब था जवाब ढूंढ़ता था
आज आमिर हूँ सवाल ढूढ़ता हूँ ।।

वक्त से पहले किस्मत भी नही मिलती ग़ालिब
लोग यूँ ही किस्मत को कोसते हैं ।।

वक्त मजधार में
आज हम पुरानी शामें
याद करते हैं
हम हैं मुसाफिर ग़ालिब
तेरा दीदार याद करते हैं ।।

मजहबियों से मेरा यकीन खाक हो चला
आज मेरा दोस्त  मुसलमान हो चला ।।

ग़ालिब जमाने को हमारी परवाह नही
हम तो यूँ ही कतल पे क्त्ल किये जाते हैं ।।

तेरे न होने पे मेरा तिरंगा भी रो गया ग़ालिब
तेरी मुस्कान पे हिंदुस्तान नजर आया ।।
अब्दुल कलाम जी के लिए

ये तूफान के आने की सुगबुगाहट है ग़ालिब
अभी न सम्हले तो डूब जाओगे

काफिला यूँ चला
मै फिरता रहा जमाने में
दै हो दरम के लिए
जब मिला अपनों से
गुलिस्तान नजर आया ।।

तेरे न होने पे मेरा तिरंगा भी रो गया ग़ालिब
तेरी मुस्कान पे हिंदुस्तान नजर आया ।।
कलाम साहब के लिए दो शब्द ।।

1 comment:

  1. कई सवालों के जवाब होते भी कहाँ हैं ...

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